Rahul Sunita Kumar
2 min readJan 20, 2019

कितना अच्छा होता…

तुम इतनी जल्दी क्यों चले गए, ज़रा और ठहर जाते तो कितना अच्छा होता,

याद है मुझे वो घर से बाज़ार तक का पूरा रास्ता,
तुम्हारी धोती का एक सिरा पकड़े मेरे नन्हे पैर चला करते थे सरपट,
मुझे रास्ता याद कराने को तुम हर मोड़, चौराहा और दुकान दिखाते चलते थे,
मैं अभी भी रास्ते भटक जाता हूँ अंजान मंज़िलों की तलाश में बाबा,
तुम्हारी अँगुली थामे कुछ दूर और चल लेता तो कितना अच्छा होता !

तुम बताते थे मुझे दूर उन तारों-सितारों की बातें, वो रेलगाड़ी, वो नदी किनारे का छोटा सा मंदिर, और उस खेत के बारे में जहाँ तुम हल चलाते थे,
किसान, अनाज, ईश्वर, धन, दान सबके बारे में बतला कर कहते थे, इसे याद रखना !
अब समझने लगा हूँ तुम्हारी वो ज़हीन बातें जो उसवक्त नही समझ पाता था,
आज फिर से दो-चार बातें और कर लेते, तो कितना अच्छा होता !

सरेह की उस मचान पर बैठा जब मैं तुम्हे कुदाल चलाते देखता था, पसीने में सराबोर,
तब तुम कभी-कभी अपना ऐनक मुझे साफ़ करने को देते थे,
मैं आज भी तुम्हें उस ऐनक में देखता हूँ,
तुम्हारी ऐनक से दुनिया का निष्पक्ष सत्य दिखता था बाबा,
काश आज मैं अपनी ऐनक तुम्हारी ऐनक से बदल पाता, तो कितना अच्छा होता !

तुम बहुत खुश होते थे मुझे किताबें पढ़ते देख,
अपनी कहानीयों के बदले में, अख़बार से पढ़के मुझे समाचार सुनाने को कहते थे,
आज भी हर सुबह वो अख़बार आता है बाबा,
और मेरी कुछ मनपसंद किताबें भी हैं,
बस तुम एक बार और आजाते, और मैं उन सब के साथ यह कविता भी तुम्हे पढ़ के सुना देता,
तो कितना अच्छा होता !

बाबा ! तुम होते तो कितना अच्छा होता !

- @राहुल कुशवाहा

Rahul Sunita Kumar

Through words flow emotions, reality and the much-needed elixir of life. Sit at the brink or sail through the waves is a choice to make. I made my choice !