कहानी:- हीरो
रोज़ की ही तरह वो दिन भी मेरे लिए कुछ खास नहीं था, बस एक सामान्य दिन। और हर दिन की तरह मैं अपने काम से वापस लौट रहा था, शाम का वक्त था और सर्दी का मौसम, और दिन भर की थकान के बाद अब मेरी गाड़ी ट्रैफिक जाम में फंसी थी। सूरज ढल चुका था और हल्का हल्का अंधेरा हो चला था। बाहर के ट्रैफिक का सही अनुमान लगाने के लिए मैंने जैसे ही अपनी गाड़ी का शीशा नीचे किया, एक ठंडी हवा के झोंके से मेरे बदन में कपकपी दौड़ गई। मैंने फ़ौरन शीशा ऊपर चढ़ाया और अपनी गाड़ी का हीटर थोड़ा और बढ़ा दिया।
“हां, अब ठीक है, बस अब ये जाम जल्दी से खुल जाए और मैं घर पहुंच जाऊं।”
मेरे मन में यह सब चल ही रहा था कि तभी अचानक मेरी गाड़ी के शीशे पर किसी ने ज़ोर से थपथपाना शुरू कर दिया, मैंने सोचा कि कोई भिखारी होगा। मैंने शीशा खोलने के बजाय उस पार ध्यान से देखने की कोशिश की, कम रोशनी की वजह से मैं ठीक से देख नहीं पा रहा था, लेकिन फिर ध्यान से देखने पर लगा कि एक छोटा बच्चा भीख मांगने के लिए थपथपा रहा है। मैंने अंदर से ही उसे हाथ से चले जाने का इशारा किया।
“आजकल शहर में भिखारियों की संख्या कितनी बढ़ती जा रही है, इसे एक व्यवसाय बना रखा है इन लोगों ने, खुद तो भीख मांगते ही हैं अपने बच्चों को भी इसी काम पर लगा देते हैं । क्या फायदा है ऐसे लोगों को पैसा देकर भी यह तो सुधरेंगे नहीं और दस -पांच रुपए से इनका क्या ही भला हो जाएगा। अरे भाई कुछ काम धंधा करो, मेहनत मजदूरी करो इस तरह हाथ पैर सही सलामत होते हुए भी भीख क्यों मांगते हो।”
मैं अपने आप से यह सब कह ही रहा था, कि अचानक फिर से थपथपाने की आवाज आई। “एक तो मैं वैसे ही इस ट्रैफिक जाम से परेशान था ऊपर से यह और मुझे परेशान कर रहा है, लगता है ऐसे नहीं समझेगा।” मैंने फौरन अपनी गाड़ी का शीशा नीचे किया और ऊंचे स्वर में बोला “क्यों रे, समझ नहीं आ रही है एक बार में? बार-बार शिशा थपथपा रहा है। तेरे मां-बाप कहां हैं?”
“साहब ! बहुत मेहरबानी होगी मुझे कोई गर्म कपड़ा दे दो साहब।” रहा होगा कोई दस -बारह साल का लड़का, उसके यह शब्द सुनकर पहले तो मुझे समझ ही नहीं आया कि मैं क्या बोलूं, पर फिर मैंने अपना ऊंचा स्वर बरकरार रखा और बोला, “मेरे पास कोई कपड़ा नहीं है, ये ले पांच रुपए और जा यहां से।”
“नहीं साहब पांच रुपए नहीं चाहिए मुझे कोई गरम कपड़ा दे दो।” उसने मेरी गाड़ी में इधर-उधर थोड़ा देखा और बोला, “यह अपना मफलर ही दे दो साहब बहुत मेहरबानी होगी, देदो साहब !”
इस बार उसकी आवाज सुनकर मुझे ऐसा नहीं लगा कि वह भीख मांग रहा है, लगा जैसे वो मदद मांग रहा था, उसकी आंखो में दबी वह बेबसी देख कर मैं समझ नहीं पाया कि और क्या पूछूं या क्या कहूं उसे, मैंने अपना मफलर गले से निकाला और उसे दे दिया। मेरा मफलर उसके हाथ में थमाते ही वह तेजी से भागता हुआ सड़क के दूसरे किनारे बने एक पुल की एक दीवार के पीछे की ओर चला गया।
यह सब इतनी तेजी से हुआ कि मैं ठीक से कुछ समझ ही नहीं पाया, मेरे मन में अब बहुत से सवाल घूम रहे थे,
“वह कौन था? उसने पैसे क्यों नहीं लिए ? उसे मेरा मफलर क्यों चाहिए था ?
वह भिखारी था या कोई और ? उसके मां-बाप ?” यह सारे सवाल मेरे मन में एक साथ उठने लगे। जैसे शांत समंदर में लहरों की उथल-पुथल मच गई हो।
एक मन हुआ कि मैं भी गाड़ी से बाहर निकल कर उसके पीछे जाऊं, लेकिन फिर इसतरह गाड़ी को बीच सड़क पर जाम में कैसे छोड़ सकता था, गाड़ियां भी धीरे धीरे आगे बढ़ने लगी थी, और अब ना चाहते हुए भी मुझे वहां से जाना पड़ रहा था। लेकिन पूरे रास्ते मेरे मन में बस वही सवाल दौड़ते रहे।
वैसे तो मैं अपने घर में अकेला ही रहता था, मां -बाबा के जाने के बाद इस अकेलेपन की आदत सी हो गई थी, लेकिन आज मुझे अपने घर का सन्नाटा कुछ ज्यादा ही महसूस हो रहा था और वह शायद इसलिए क्योंकि आज मैंने आते ही टीवी नहीं चलाया या अपना लैपटॉप खोलकर ईमेल चेक करने में नहीं लग गया, मैं बस चुपचाप अपने कमरे में जाकर बिस्तर पर सीधा लेट गया।ऊपर की ओर छत को निहारते हुए, आज ना तो कुछ खाने का मन हो रहा था और ना ही सोने की इच्छा, नींद भी जैसे मुझे इस अकेलेपन में छोड़ कर चली गई थी, मैं बहुत देर उसी लड़के के बारे में सोचता रहा।
उन्हीं सवालों को बार बार अपने मन में दोहराता रहा, उस पूरे दृश्य को बार-बार याद करता रहा, और धीरे -धीरे ना जाने कब वह छत मेरी आंखों से ओझल हो गई…
सुबह के अलार्म से मेरी नींद खुली, फिर से एक और दिन की शुरुआत। लेकिन आज का दिन कुछ अलग था, आज बहुत वक्त के बाद मेरे मन में तैयार होने और घर से ऑफिस के लिए निकलने की जल्दबाज़ी नहीं थी बल्कि मैं अपने बिस्तर पर बैठे उसी लड़के के बारे में सोच रहा था। लेकिन ना तो मैं किसी सवाल का जवाब ढूंढ पारहा था और ना ही यह समझ पारहा था कि ऐसा क्या देखा मैंने उसकी आंखों में जिसकी वजह से उसका ख्याल मेरे दिल से नहीं जा रहा। आखिर भीख मांगते हुए बच्चे तो मुझे रोज दिखते हैं। मैं कभी उन्हें रुक कर कुछ सिक्के दे देता हूं तो कभी अपनी ही धुन में आगे बढ़ जाता हूं लेकिन इस बार क्या अलग था?
जब देर होने लगी तो मैं उठकर तैयार हुआ और अपनी गाड़ी में बैठकर ऑफिस के लिए निकल पड़ा, मैंने सोचा कि अब इस बारे में सोचते रहने से कोई फायदा नहीं, मुझे अपने काम पर ध्यान देना चाहिए। मैं आधे रास्ते ही पहुंचा था कि मेरे मन में अचानक एक ख्याल आया जैसे मेरे अंदर से ही कोई मुझसे बात कर रहा हो, “क्यों ना मैं उसी जगह जाकर उस लड़के को ढूंढू ? यह सही रहेगा, मैं उसे ढूंढ कर अपने सवालों का जवाब पा लूंगा। लेकिन उसका कोई घर थोड़ी होगा और ना ही मुझे उसके बारे में कुछ पता है कैसे ढूंढ लूंगा? उसके बारे में किससे पूछूंगा? नहीं नहीं, लगता नहीं यह विचार काम करेगा, जाने देता हूं। लेकिन अगर कोशिश करूं तो हो सकता है वह मिल भी जाए, वैसे भी मैं ऑफिस से कोई छुट्टी तो लेता नहीं हूं तो अगर आज एक दिन ले भी लूंगा तो क्या बिगड़ जाएगा ?
लेकिन अगर वहां जाकर भी वह लड़का नहीं मिला तो? अरे तो कुछ नहीं, वापस लौट आऊंगा और क्या? अब बस चल कर देख ही लेता हूं !”
कभी कभी अपने मन से ही सवाल जवाब करना कितना मुश्किल हो जाता है लेकिन अब मैंने फैसला ले लिया था और मैंने गाड़ी उस जगह की ओर मोड़ ली।
ठीक उस लाल बत्ती पर पहुंचकर मैंने सड़क के किनारे अपनी गाड़ी लगाई और उतर कर पैदल उसी दिशा में जाने लगा, उसी पुल की तरफ जिधर वह लड़का दौड़ा था, मैं इधर उधर अपनी नजरें डालता चल रहा था। मेरे मन में उम्मीद भी थी, और शंका भी। उस पुल से लगे फुटपाथ पर बहुत से लोग कागज़, प्लास्टिक या कपड़े का टुकड़ा बिछाए सो रहे थे, और सबने एक मैली सी चादर ओढ़ रखी थी। मैंने पहले भी लोगों को सड़क के किनारे सोते देखा था, लेकिन हर बार उनके लिए अफसोस करके आगे बढ़ जाता था, “बेचारे बेघर लोग, अब क्या कर सकते हैं।”
पहली बार उनके बीच से होकर गुजर रहा था। कुछ दूर आगे चलकर वह दीवार खत्म हुई और जैसे ही मैं उस दीवार की दूसरी तरफ मुड़ा, मुझे वह मिल गया !
शायद मैंने उसे उसके चेहरे से नहीं पहचाना था उसके हाथ में मेरा वो सफेद मफ़लर था, जो उसके आसपास सबसे साफ़ सुथरी चीज़ थी और देखते ही मेरी नजर में आ गई। इससे पहले कि मैं कुछ भी कहता या समझता, मुझे उसकी डरी हुई आंखें दिखाई दीं और अगले ही क्षण वह उठकर भागने लगा।
“अरे सुनो ! रुको! भाग क्यों रहे हो ? मैं तुम्हें कोई नुकसान नहीं पहुंचा रहा, डरो मत, रुको ! अरे सुनो तो ! देखो मैं तुम्हारे लिए कुछ लाया हूं !
और अचानक उसने रुक कर मेरी तरफ मुड़ कर देखा, न जाने मैंने ऐसा क्यों कह दिया क्योंकि मेरे पास उसके लिए कुछ भी नहीं था, शायद मुझे लगा कि ऐसा कहने से वो रुक जाएगा।
“देखो घबराओ मत मैं तुम्हें नुकसान नहीं पहुंचाऊंगा, मैं केवल बात करना चाहता हूं, मुझसे बात करोगे? “ शायद अब उसने मुझे पहचान लिया था।
“क्यों?” उसने पूछा।
“बस ऐसे ही अगर तुम मुझसे बात करोगे तो मैं तुम्हें एक और मफ़लर दूंगा।”
यह सुनते ही वह अचानक हंसने लगा और उसी स्वर में बोला “अरे मैं एक और मफलर का क्या करूंगा, मुझे तो बस अपने हीरो के लिए एक मफलर चाहिए था।”
“हीरो? यह हीरो कौन है?” मैं कुछ समझ नहीं पाया था।
और तभी उसने पास आकर अपने हाथ में जो मफ़लर पकड़ा हुआ था, उसके एक सिरे को हटाया, और तब मुझे यह एहसास हुआ कि वह मफ़लर उसने अपनी हथेली पर नहीं लपेटा था बल्कि एक छोटा सा कुत्ते का बच्चा उस मफलर के नीचे ढका हुआ था।
“ये है मेरा हीरो, मैं इसी के लिए तो आप से मफलर मांगने आया था साहब, कल रात ठंड के मारे यह बहुत कांप रहा था और कूं कूं भी कर रहा था, मैं घबरा गया कि कहीं इसे कुछ हो ना जाए।”
यह सुनकर मेरी दिलचस्पी उससे बात करने में और बढ़ गई, “लेकिन तुम्हें ये कहां मिला? और तुम्हारा नाम क्या है? और तुम्हारे माँ बाप कहां हैं? “
“अरे अरे साहब ! इतने सारे सवाल? आप पुलिस वाले हो क्या?” इतना कहकर वो हंसने लगा और फिर बोला, “मेरे मां बाप नहीं है साहब, और मैं इस शहर का भी नहीं हूं, मैं तो एक ट्रेन में बैठ कर यहां आ गया। मैं वहां एक पटाखे बनाने वाली फैक्ट्री में काम करता था, मेरे साथ और भी बहुत से बच्चे थे, सब मेरे दोस्त थे। एक दिन हम सब पटाखे बना रहे थे तभी अचानक फैक्ट्री में एक धमाका हो गया और मेरा सबसे अच्छा दोस्त सुरिया, मर गया साहब।”, इस से पहले कि मैं समझ पाता कि वह रो रहा है, उसने अपने आंसू पोंछ लिए। और फिर से बोलने लगा, जैसे वह कब से इंतजार कर रहा हो कि किसी एक दिन कोई उसकी ये सारी बातें सुनेगा।
“उस रात मैं बहुत घबरा गया साहब, बहुत रोया, और मौका देख कर वहां से भाग निकला, मैं भागते भागते रेलवे स्टेशन पहुंच गया और जो ट्रेन मेरे सामने थी उसमें छुप के बैठ गया, और यहां आ गया साहब।”
उस की कहानी सुनकर मेरे मन में हैरानी, परेशानी और एक तकलीफ का एहसास था, मैं उससे कुछ कहना चाहता था लेकिन समझ नहीं पा रहा था क्या कहूं, इतने में वह दोबारा बोलने लगा, शायद मैंने बहुत से सवाल एक साथ उठा दिए थे,
“और ये हीरो तो मुझे यहीं मिला था, मैं रात को यहीं सोता हूं ना, तो एक रात मेरे पैरों से लिपट के सो गया, और उसके बाद सुबह मैंने सोचा के चला जाएगा लेकिन ये यहीं बैठा रहा और जब मैं वापस आया तो और कोई भी नहीं था इसके आसपास, मुझे लगा ये भी अकेला है और मैं भी अकेला हूं, तो मैंने इसे अपना दोस्त बना लिया।” बहुत उत्साह से वो मुझे सब बता रहा था।
“अब यह हर जगह मेरे साथ साथ चलता है साहब, और मैं इसे अपने दिन की सारी बातें भी बताता हूं। बोल हीरो, साहब को बता, हम दोस्त हैं ना? बता साहब को।”
उसकी बातें सुनकर मुझे रोना भी आ रहा था और उसे देख कर मुझे मुस्कुराने का भी मन कर रहा था, तो मैंने अपने आंसू छुपाने के लिए हंस कर उससे एक और सवाल कर लिया, “अच्छा ! वो सब तो ठीक है लेकिन तुमने इसका नाम हीरो क्यों रखा?”
उसने उत्साह के साथ खड़े होकर एक बड़े से पोस्टर की तरफ इशारा करते हुए कहा “क्योंकि मुझे हीरो बहुत पसंद है साहब, जैसे वो ‘ अमिताबच्चन ‘ और वो ‘ सारूखान ‘! एक दिन मुझे भी हीरो बन ना है साहब, इसलिए मैंने इसका नाम भी हीरो रख दिया !”
“अच्छा नाम है ना साहब?” उसने मेरी तरफ देखते हुए पूछा ।
“हां, बहुत अच्छा है”, में इस से ज़्यादा कुछ बोल ही नहीं पाया। बस उसे देखता रहा। वो अपने हीरो को प्यार से सहलाने लगा।
तभी मेरे मन में एक बात आई, और मैंने उससे पूछा, “अच्छा सुनो मेरे साथ चलोगे?”
“कहां साहब?”
“यहीं, पास में ही, तुम्हारे हीरो को भी भूख लगी होगी और तुम्हे भी, और मुझे भी भूख लगी है, साथ में खाना खाते हैं। चलो ?”
और उसने मना नहीं किया, मेरे साथ उठकर चल दिया । और उस दिन मैंने पेट और मन भर के खाना खाया था ।
……
मिश्रा जी – “अरे वाह भाई लेखक साहब ! क्या बढ़िया कहानी लिखी आपने। भाई, इस बार भी मैगजीन में आप की कहानी छपनी चाहिए, मैं तो जरूर पढ़ता हूं आप की कहानियां, इस बार भी पढूंगा।”
रामानुज – “बहुत शुक्रिया मिश्रा जी, मैं बहुत खुश हूं आपको अच्छी लगी।”
मिश्रा जी – “अरे अच्छी तो है ही भाई जी ! चलिए अब मैं चलता हूं हमारी बिटिया की बिल्ली को इंजेक्शन लग गया है, बस अपनी बिटिया की ज़िद की वजह से हमें आना पड़ता है ये जानवरों के अस्पताल ! वैसे आप यहां कैसे? आपके लेखनी की बात शुरू हो गई तो मैं यह पूछना ही भूल गया !”
रामानुज- “जी बस अब क्या बताऊं, मेरे बेटे को भी जानवरों से बहुत लगाव है, बस हमारे पालतू कुत्ते का भी चेकअप वगैरा था थोड़ा इसलिए। चलिए मिलेंगे फिर, नमस्कार ! “
मिश्रा जी – “जी नमस्कार !” (और मिश्रा जी अपनी बेटी के साथ चल दिए)
रामानुज – “रेहान ! , बेटा कैसा है अब तुम्हारा ‘ हीरो ‘ ? अब चलें? तुम्हारी थियेटर क्लास का भी वक़्त हो गया है ! “
रेहान – “ जी अप्पा, चलिए ! “
.………
– राहुल कुशवाहा (राही)